पर्यावरण की प्रतिष्ठा (pryavrn ki pratishtha)




      पर्यावरण एक ऐसा शब्द, जिसने हमारी श्वास-श्वास में प्राचीन काल से लेकर मध्यकाल तक, तथा मध्य काल से लेकर वर्तमान काल में एक अपना निश्चित स्थान रखा है ।
जब कोई व्यक्ति गर्भ में होता है, तब वह मां के माध्यम से सांस व पोषण लेता है मां उसे इसी पर्यावरण के माध्यम से गर्भावस्था में भोजन,पानी,हवा,ऊष्मा इत्यादि विभिन्न प्रकार की औषधियों की शक्ति उपलब्ध करवाती है, इस तरह से सम्पूर्ण प्रकृति का उत्तरदायित्व एक नव सन्तान को संवारने का होता है ।

         जैसे-जैसे मनुष्यों के जीवन का विकास आगे बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे पर्यावरण के विभिन्न प्रकार के हिस्से 
वृक्ष, पशु, पक्षी,वनस्पति,पौधे और भी अन्य जीवाणु, विषाणु से प्रकृति के हिस्सों का आशीष भिन्न भिन्न रूप से मानव को प्राप्त होता गया , जिससे गर्भावस्था सन्तान से लेकर वृद्ध जन , के पोषण में ,पर्यावरण की भूमिका अप्रत्यक्ष या प्रत्यक्ष प्रतीत होती है।
  यह शब्द परि+आवरण= पर्यावरण के नाम से जिसे हम जानते हैं ,यह इतना अमूल्य है कि जब कोई गर्भस्थ संतान , गर्व से बाहर आती है तब उसको पूरी जवाबदारी से यही पर्यावरण धीरे-धीरे नये-नये अवसरों को पैदा करके जीवन को विकसित करते जाता है इन्ही अवसरों से  ही संतान का मन स्थिरता,बुद्धि की प्रखरता , शरीर सुगठित और पल्लवित होता है।
प्राचीन मनीषियों ने यह जाना और पूरी लगन से अपने पर्यावरण को सजाने के लिए , संवारने के लिए लग गए , उनके इस तरह से कठिन से कठिन श्रम के माध्यम से पर्यावरण में नए-नए वृक्ष, नई औषधियां लगाना उनके अनुकूल नया वातावरण बनाकर उनसे प्राप्त सुंदर फूल ,फल ,लकड़ी, इत्र इत्यादि सभी का सकारात्मक उपयोग किया गया ।
और उन दूरदर्शी मनीषियों ने पूरा वातावरण अपने अनुकूल बनाया जिससे कि उनका रहन-सहन उनका विचार ,चिंतन ,मनन ,स्वास्थ्य सभी अनुकूल रहने लगे तथा मनुष्य और पर्यावरण के बीच में एक मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित हो और पूरी मानवीय सभ्यता , मानवीय जीवन स्वस्थ ,समृद्धि और सुखमय हो गया।।

           धीरे धीरे समय बदला पीढ़ी बदली और मनुष्य का ज्ञान का स्तर भी बदला इस स्तर में नए नए अविष्कार के चलते मनुष्य बड़ी-बड़ी  गगनचुंबी इमारतें फैक्ट्रिया, पर्यावरण के प्रतिकूल धुआ वाले वाहन का उपयोग, लगातार धरती के संसाधनों का दोहन करना प्रारंभ कर दिया।

                जिससे धीरे धीरे हमारे आसपास की वायु जिसमें हम सांस लेते हैं वह दूषित होने लगी, फिर जो ज्ञान हमको पर्यावरण से मिला था उस ज्ञान से हम दूरियां बनाने लगे, जल को दूषित कर दिया भूमि को दूषित करने लगे ,और व्यर्थ महत्वाकांक्षाओं में उलझ कर पेड़ों को,पौधों को काटकर मैदान के आकार देकर उनका दोहन करने लगे।
इन सभी दोहन से हमें अपनी गलती का एहसास हो जाना चाहिए,समय रहते सतर्क हो जाना चाहिए :-)
  • ज्यादा से ज्यादा पौधों को लगाने का प्रयास करना चाहिए।
  • अधिक से अधिक पौधों को वृक्ष बनाने में काम करना चाहिए ।
  •  प्राकृतिक संसाधनों को सुरक्षित रख कर पर्यावरण के प्रति अपने कर्तव्यो का विस्तार से परिपालन कर संकल्पित भाव को सँजोते रहें ।
  • ज्यादा से ज्यादा वायु शुद्धि के लिए काम करना चाहिए
  • कोशिश करना चाहिए प्रकृति के प्रतिकूल धुआं से संबंधित संसाधन कम उपयोग किए जाएं ।
  • अपने अविष्कारों को हमें यह ध्यान  रख कर करना चाहिए कि पर्यावरण से संतुलन बना रहे किसी भी तरीके से पर्यावरण और मानव जीवन में हम मैत्रीपूर्ण हमेशा बने रहे। 
  • हमे आराम तलब बातावरण को छोड़ कर पर्यावरण के अनुकूल वातावरण में रहना होगा।।                              पर्यावरण के प्रसंग में आगे संक्षिप्त में कुछ अन्य विषय को जोड़कर समझते  हैं  :-
 ज्योतिष शास्त्र का पर्यावरण से सम्बंध :-  ज्योतिष के मूल आधार नक्षत्र, राशि और ग्रहों को भी पर्यवारण के इन अंगों जल-भूमि-वायु आदि से जोड़ा गया है और अपने आधिदैविक और आधिभौतिक कष्टों के निवारण के लिए इनकी पूजा पद्धति को बताया गया है। 
आयुर्वेद का पर्यावरण से सम्बन्ध :-  आयुर्वेद कहता है कि रोग का उद्गम कैसे हुआ ? 
पहले यह जाने,
किन तत्वों का आभाव शरीर मे हुआ जिससे रोग आया? 
अब रोग तो आ  ही गया -
फिर आयुर्वेद कहता है कि हमारे पर्यावरण में ऐंसे कोन से तत्व हैं जिनके सेवन से सदा के लिए रोग चला जाये । यही मूल सम्बन्ध है आयुर्वेद और पर्यावरण का।
ध्वनि और पर्यावरण का सम्बंध :- ध्वनि जीवन को संवार सकती और बिगाड़ भी सकती है,क्योंकि मानव काफी हद तक ध्वनि से ही चलाएमान है,चाहे वाणी से देखें ,चाहे उसकेे जीवन की गति इत्यादि को देखें।
  ध्वनि प्रदूषण का मापन (Measurement Of Noise Pollution) :-
ध्वनि की तीव्रता को मापने के लिए डेसीबेल (Decibel) इकाई निर्धारित की गई है।
मनवीय कान (Ear) 30Hz से 20,000 Hz तक की ध्वनि तरंगों के लिए बहुत अधिक संवेदनशील है, लेकिन सभी ध्वनियां मनुष्य को नहीं सुनाई देती हैं। डेसी का अर्थ है 10 और वैज्ञानिक ग्राहमबेल के नाम से “बेल” शब्द लिया गया है।

कान की क्षीणतम श्रव्य ध्वनि शून्य स्तर से प्रारम्भ होती है।
नीचे दी गई तालिका में विभिन्न स्रोतों से निकलने वाली ध्वनि के स्तर को दर्शाया गया है-

स्रोत

ध्वनि स्तर (Decibel)

श्वसन

10

पत्तियों की सरसराहट

10

फुसफुसाहट

20-30

पुस्तकालय

40

शांत भोजनालय

50

सामान्य वार्तालाप

55-60

तेज वर्षा

55-60

घरेलू बहस

55-60

स्वचालित वाहन/घरेलू मशीनें

90

बस

85-90

रेलगाड़ी की सीटी

110

तेज स्टीरियो

100-115

ध्वनि विस्तारक

150

सायरन

150

व्यावसायिक वायुयान

120-140

राकेट इंजन

180-195

ध्वनि प्रदूषण के मानक (Standards Of Noise Pollution)

विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार निद्रावस्था में आस-पास के वातावरण में 35 डेसीबेल से ज्यादा शोर नहींं होना चाहिए और दिन का शोर भी 45 डेसीबेल से अधिक नहींं होना चाहिए। तालिका में मानकों केा दर्शाया गया है।

                इस तरह से हम समझ जाएं कि ध्वनि हमारे जीवन के पर्यावरण की प्रतिष्ठा को बढ़ा भी सकती और घटा भी सकती है।इस लिए खास ध्वनि की गति से ज्यादा हमारे कान सुन नहीं सकते ।
जीवनचर्या का सम्बन्ध पर्यावरण से :- सुबह से शाम तक जीवन मे एक नियम स्वयं के लिए विचार पूर्वक बनाए रखना ही चाहिए , कि जब तक हमारे शरीर मे श्वासें विद्दमान हैं , तब तक गुणबत्ता पूर्ण जीयूँ, पर्यावरण से अलग कुछ भी नही है,कोशिश करें कि हर काम पर्यावरण के सानिध्य में रहकर ही करें, आराम तलब  पलो को ऐंसा जीऐं की जीवन की हर सुबह पर्यावरण से ही हो और जीवन का बौद्धिक विकास पर्यावरण से ही होता रहे।
         इस तरह की जीवन चर्या से पर्यावरण की पूनः प्रतिष्ठा हो पाएगी।और जीवन खिल उठेगा ।

अब अत्यंत ही सुंदर काव्य पाठ का रसस्वादन कीजिये :- 
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जन्म दिन में न काटो केक ,
     ध्यान रखो पेड़ लगाओ एक ।
 मोमबत्ती को बुझाओगे
     तो जीवन मे होगा अंधेरा ।
       जलाओ दीप,
तुम्हारे जीवन में उजाला आएगा मिटेगा अंधेरा ।
        हाथ जोड़कर प्रार्थना है प्रकृति से,
 सबके घर मे सनातनी भाव का रहे डेरा 
यही सन्देश है पर्यावरण की प्रतिष्ठा का  मेरा।।
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