यथार्थ मार्गदर्शन(Yatharth Marg Darshan)

अशुद्ध विचारों को शुद्ध विचारों में बदलोगे ,
                         तो  'बेचारे' नहीं रहोगे।
अपने 'अन्तः करण' की सुनोगे तो,
                          'ईश्वरीय सत्ता' के दुलारे रहोगे ।
 "आत्म बल'' बढ़ाओगे तो कर्म बल बढ़ेगा।  
        
 उससे यह होगा ..........

          कभी "लाचारी के रखवाले" न रहोगे।।

यथार्थ मार्गदर्शन(Yatharth Marg Darshan)

          स्मरण रखिये की प्रत्येक बीज , जो आप देखते हैं, अपने अन्तः स्थल में एक महान वृक्ष🌳🌴🌳 छिपाए हुए है । उसके द्वारा जगत की कुछ भलाई कुछ सेवा,कुछ 🌄🌅🌈नई सृष्टि की योजना अवश्य होगी। 
         गेंहु का एक दाना लीजिये :- परमेश्वर ने उसमें कुछ ऐंसी योजनाएं संचित की हैं,जिनसे वह एक क्षुद्र बीज से परिपूर्ण पौधा🌳🌴 बन सकता है। 🌿🌱🍀🌿🌸🍁पत्तियां ,डंठल और गेहूं के असंख्य दाने उस एक बीज के अन्तःस्थल में छिपे हैं। 
            उसमें एक ऐंसी गुप्त🌅 शक्त्ति भी प्रस्तूत है जो उसे ठीक - ठीक दशा में उगने,बढ़ने और फलित होने का आदेश करती है ।
         मनुष्य के नन्हें शिशु को ही ले लीजिये। वह अबोध नही जानता कि किन अदृश्य नियमों के अनुसार वह क्रमशः बड़ा होकर एक पुरुष या स्त्री बन जाता है। उसका शारीरिक विकास होता है,वासनाएं प्रदीप्त होतीं हैं ; किंतु अंत मे वह भौतिक उन्नति से ऊंचा उठकर आध्यात्मिक जगत में प्रविष्ट होता है । 
          जैसा गेंहु का दाना अपनी प्रगति के विषय मे निर्बोध होता है, उसी प्रकार इस मनुष्य को भी अपने विकास का यथार्थ बोध नहीं होता । इन दोनों ही उदाहरणों में मार्ग  दिखानेवाली एक अदृश्य सत्ता है ।
             यही पेड़,यही,पत्ता,यही पुरुष,यही स्त्री, यही पशु-पक्षी और मानव समस्त चर-अचर सृष्टि का पथ-निर्देश करती है।एक अदृश्य कभी न गलती करने वाली शक्ति है ।

             हमें यथार्थ मार्गदर्शन करा रही है । यह आत्मा की शक्ति है। इसे  ईश्वर की प्रेरक सत्ता भी कह सकते हैं । 

            अतः सर्वप्रथम अपनी आत्मा को पहचानिए और फिर अनात्मा को।  ।   ईश्ववर दोनों का मालिक है । 

             सोचिए  'में कौन हूँ !  हाथ, पांव , सांस, स्नायु ही क्या में हूँ '??

            अब आपकी समझ मे आएगा  कि इनमें से कोई भी में, नहीं, हूँ, तभी अंतर्दर्शन का मार्ग प्रशस्त होगा । 
यथार्थ मार्गदर्शन(Yatharth Marg Darshan)     
               जिस प्रकार व्याज के छिलके को निरन्तर उतारते रहने से वह  पतला हो जाता है, उसी प्रकार  'मैं - पन' के पृथक्करण से यह तत्व सहज ही समझ मे आ जायेगा, कि मैं आत्मा ही हूँ ।
             मनुष्य ईश्वर का प्यारा पुत्र,पुत्री के रूप में है । उसे इन्ही दिव्य विभूतियों से सज्जित किया गया है , जो परमपिता परमेश्वर में मौजूद हैं ।

                परमेश्वर ने उसे अपनी ही आकृति,रूप,गुण,तत्व-शक्तियों से विभूषितकर यहां भेजा है । यही कारण है कि मनुष्य की शारीरिक वृद्धि से महत्वपूर्ण आध्यात्मिक उन्नती होती है । शारीरिक तथा आध्यात्मिक सम्पदाऐं निरन्तर बढ़तीं हैं।प्रतिदिन,प्रतिपल,दिव्य शक्तियाँ वृद्धि पर रहती हैं 

             यदि मनुष्य की व्यर्थ की आवश्यकताएं ,वासनाएं और विषयभोग की थोथी इच्छाऐ आध्यात्मिक मार्ग में रोड़ा मत अटकाएँ तो वह पथिक सीधा चला जाता है और पूर्ण ब्रम्हानन्द प्राप्त करता है। 

              अतः जीवन मे पूर्ण आध्यात्मिक आनन्द उठाने के लिए  हम अपनी इच्छाओं का भेद करने, इंद्रियों की शक्तियों का रूपांतरण करने , और वासनाओ का रूपांतरण करने हेतु सदैव प्रस्तूत रहना चाहिए।
                   इंद्रिय सुख की अपेक्षा, इंद्रिय शक्ति के रूपांतरण में अधिक सुख है । हम अपनी इंद्रियों की शक्तियों को रूपांतरण न करेंगे,और अनियंत्रित यहां - वहां  भटकने देंंगे तो स्वयं को स्वयं के तरीकों से दुख के सागर में डूबाते रहेंंगे ।
                      इंद्रियों के विषयों में अथवा भोग विलास में केवल क्षणिक सुख है, अमरत्व का यह सागर आपके भीतर है । स्वर्ग का सुखमय राज्य आपके अंदर है,उसमे विचारिये,मनमाना आनन्द मिलेगा ।

यथार्थ मार्गदर्शन(Yatharth Marg Darshan)से ही सम्भव है।

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