भय मुक्त,और प्रेम युक्त का सार(feare lessness, with love(disperssion free life) tanav se mukti kese payen

भयमुक्त हो जीवन अपना भयमुक्त bhy se mukt kese paayen (disperssion free life) tanav se mukti kese payen :-

भयमुक्त हो जीवन अपना भयमुक्त bhy se mukt kese paayen (disperssion free life) tanav se mukti kese payen

                  मनुष्य के अंतर्मन मन को जो क्रियाएं प्रभावित करती हैं, उनमें भय tanav (disperssion),भ्रम,और संदेह महत्वपूर्ण हैं, इसके अतिरिक्त काम,क्रोध,लोभ और मोह का भी महत्वपूर्ण प्रभाव अंतर्मन पर पड़ता है ,जो मनुष्य के संपूर्ण चरित्र को भी प्रभावित करता रहता है। ये मानसिक क्रियाएं शरीर में अनवरत चलती रहती हैं, जिससे जीवन का हर क्षण प्रभावित होता रहता है।

भय का भूत{bhy ka bhoot,(disperssion se mukti kese payen) tanav se mukti kese payen }

                   भय मनुष्य के लिए एक अदृश्य भूत होता है जो प्रतिक्षण मनुष्य को अदृश्य रहकर भी प्रभावित करता रहता है भय का न कोई अस्तित्व होता है, ना उसके होने की कोई संभावना रहती है। 

                  यह कुछ नहीं होता,लेकिन सब कुछ होने-जैसा लगता रहता है, यह लगना ही भय है । जिसके होने की जब कोई संभावना ही नहीं होती तो इस लगना को ही जब हम सत्य मानने का भ्रम पालने लगते हैं तो वही भ्रम सत्य होने का आभास देने लगता है। और हमारे शरीर की संपूर्ण जैविक क्रियाओं को प्रभावित करने लगता है । भय और भ्रम में मुख्य रूप से अंतर यही होता है भ्रम क्षणिक होता है, जो एक क्षण में ही हमारे शरीर में भय पैदा कर लुप्त हो जाता है । 

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भय मन की ग्रन्थियों को जकड़ता है -

                   इसी प्रकार भ्रम हमारे मन में अनिश्चय पैदा करता है, और इस अनिश्चय को मन पूरी तरह पकड़कर भय ग्रहस्त हो जाता है। यह  भ्रम की तरह क्षणिक नहीं होता । यह जब मन में बैठ जाता है तो आसानी से नहीं निकलता, लेकिन वास्तविक स्थिति यह है कि न तो भ्रम का कोई अस्तित्व है और न ही भय का। दोंनो मानसिक कल्पना की ही उपज है। जिस प्रकार भय और भ्रम का कोई अस्तित्व नहीं होता, उसी प्रकार सन्देह का ना तो कोई आधार होता है,और न कोई प्रमाण होता है। यह स्वतः मन के विकारों से उत्पन्न होता है और मन की ग्रंथियों को बुरी तरह जकड़ लेता है।

जिससे मनुष्य का पूरा चरित्र कुंठित होने लगता है और कुंठा ग्रस्त मनुष्य किसी काम का नहीं होता है।

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                    प्रेम का शास्त्र इसके बिलकुल विपरीत है। वह अच्छे को अभय करता है,बुरे को भयभीत करता है। बुरा अपने आप भयभीत होता है। अच्छा अपने आप अभय को उपलब्ध होता है।

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                  क्योंकि जितनी ही प्रेम में गति होती है उतना ही अभय उपलब्ध होता है, प्रेम से भरा हुआ व्यक्ति डरता नहीं,अब कोई कारण डरने का न रहा। प्रेम मृत्यु से भी बड़ा है। हम मृत्यु से भी नहीं डर सकते।

                यदि कोई कहे, हम मार डालेंगे ! तो प्रेम मरने को तैयार हो जाएगा, लेकिन डरेगा नहीं। प्रेमी मर सकता है शांति से जीवन को भी दांव पर लगा सकता है। क्योंकि जीवन से भी बड़ी उपलब्धी उसे मिल गई। जब बड़ी उपलब्धी मिलती हो, तो छोटी उपलब्धी को दांव पर लगाया जा सकता है। 

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प्रेम अगर स्वर्ग का द्वार है तो भय नरक का द्वार है 

                  मनुष्य आज तक भय को आधार बना कर जिया है। इसलिए कुछ आश्चर्य नहीं है कि मनुष्य जीवन नरक हो गया हो। इसीकारण प्रेम अगर स्वर्ग का द्वार है तो भय नरक का। 

डर से बड़ी कोई बुराई नहीं है:-

                 समाज की, राज्य की सारी व्यवस्था भय-प्रेरित है। हमने नागरिकों को डराकर नागरिकों को अच्छा बनाने की कोशिश की है। और डर से बड़ी कोई बुराई नहीं है। यह तो ऐसे ही है जैसे कोई जहर से लोगों को जीवित करने की कोशिश करे। भय सबसे बड़ा पाप है। और उसको ही हमने आधार बनाया है जीवन के सारे पुण्यों का। तो हमारे पुण्य भी पाप जैसे हो गए हैं।

आइए विषय मे पूर्ण एकाग्र होते हैं -

                  सुगम है लोगों को भयभीत कर देना। प्रेम से आपूरित करना तो बहुत कठिन है, क्योंकि प्रेम के लिए चाहिए एक आंतरिक विकास। भय के लिए विकास की कोई भी जरूरत नहीं। एक छोटे से बच्चे को भी भयभीत किया जा सकता है। लेकिन छोटे से बच्चे को हम प्रेम कैसे सिखांएगे ? प्रेम तो लोग नहीं सीख पाते मृत्यु के क्षण तक; अधिक लोग तो बिना प्रेम सीखे ही मर जाते हैं। 

                    छोटे बच्चे को अच्छा काम करवाना हो तो क्या करोगे ? भयभीत करो, मारो, डांटो, डपटो, भूखा रखो, दंड दो। छोटा बच्चा असहाय है। हम उसे डरा सकते हैं। वह हम पर निर्भर है। माँ अगर अपना मुंह भी मोड़ ले उससे और कह दे कि नहीं बोलूंगी, तो भी वह उखड़े हुए वृक्ष की भाँति हो जाता है। उसे डराना बिलकुल सुगम है, क्योंकि वह हम पर निर्भर है। हमारे बिना सहारे के तो वह जी भी न सकेगा। एक क्षण भी बच्चा नहीं सोच सकता कि वह हमारे बिना कैसे बचेगा।

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मनुष्य का बच्चा सारे पशुओं के बच्चों से ज्यादा असहाय है-

                  पशुओं के बच्चे बिना मां-बाप के सहारे भी बच सकते है। मां-बाप का सहारा गौण है जरूरत भी है तो दो-चार दिन कि है; महीने, पंद्रह दिन कि है। मनुष्य का बच्चा एकदम असहाय है। इससे ज्यादा असहाय कोई प्राणी नहीं  हो सकता है। अगर मां-बाप न हो तो बच्चा बचेगा ही नहीं। तो मृत्यु किनारे खड़ी है। मां-बाप के सहारे ही जीवन खड़ा होगा। मां-बाप के हटते ही, सहयोग के हटते ही, जीवन नष्ट हो जाएगा। इसलिए बच्चे को डराना बहुत ही आसान है। और हमारे लिए भी सुगम है। क्योंकि डराने में कितनी कठिनाई है ? आंख से डरा सकते हो; व्यवहार से डरा सकते हो। और डरा कर हम बच्चे को अच्छा बनाने की कोशिश करते हो। 

एक भ्रांति है जीवन की

               यह एक भ्रांति हो जाती है, क्योंकि भय तो पहली बुराई है। अगर बच्चा डर गया और डर के कारण शान्त बैठने लगा तो उसकी शांति के भीतर अशांति छिपी होगी। उसने शांति का पाठ नहीं सीखा; उसने भय का पाठ सीखा। अगर डर के कारण उसने बुरे शब्दों का उपयोग बंद कर दिया, गालियां देनी बंद कर दीं, तो भी गालियां उसके भीतर घूमती रहेंगी, उसकी अंतरात्मा की वासिनी हो जाएंगी। 

                   जैसे ऊपर से ढक्कन बंद कर दोगे, आत्मा में धुआं गूंजता रह जाएगा। यह ढक्कन भी तभी तक बंद रहेगा जब तक भय जारी रहेगा। कल बच्चा जवान हो जाएगा, हम बूढ़े हो जाएंगे, तब भय उलटा रूप ले लेगा। तब जो-जो दबाया था वही-वही प्रकट होने लगेगा। बहुत कम बच्चे हैं जो बड़े होकर अपने पिता के साथ सदव्यवहार कर सकें। पैर भी छूते हों तो भी उससे सदभाव नहीं होता। व्रद्ध पिता के साथ अच्छा व्यवहार बड़ा कठिन है। 

 अब सूक्ष्म कारण जानते हैं ?

                       जब हम बच्चे थे,तब पिता ने जो व्यवहार किया था वह अच्छा नहीं था। इसे तो कोई भी नहीं देखता कि पिता बेटे के साथ बचपन में कैसा व्यवहार कर रहा है। यह सभी को दिखाई पड़ेगा कि बेटा पिता के साथ बुढ़ापे में कैसा व्यवहार कर रहा है। लेकिन जो तुम बोओगे उसे काटना पड़ेगा , उससे बचने का कोई उपाय नहीं है। आज बच्चा सबल हो गया है। पिता अब व्रद्ध होकर दुर्बल हो गए हैं, इसलिए नाव उलटी हो गई है। अब बच्चा भयभीत करेगा। अब वह जवान है, अब वह हमे डराएगा। वह हमे दबाएगा।

भय को न दबाएं-

            भय से कुछ भी नष्ट नहीं होता, सिर्फ दब जाता है। और जब भय की स्थिति बदल जाती है तो बाहर आ जाता है। तो हमें समाज में दिखाई पड़ेंगा, वे लोग जो भय के कारण अच्छे हैं। उनका अच्छा होना दिखावटी जैसा है। वे जबरदस्ती अच्छे हैं। अच्छा होना नहीं चाहते , अच्छे का उन्हें स्वाद नहीं मिला। वे सिर्फ बुरे से डरे हैं और घबड़ा रहे हैं, और भीतर कंप रहे हैं। इस कंपन के कारण लोग अच्छे हैं। 

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भय से जीवन को अभिव्यक्ति देने में डर लगता है :-

           इसलिए अच्छे आदमी में फूल खिलते दिखाई नहीं पड़ते। उलटा ही दिखाई पड़ता है, कभी-कभी बुरा आदमी तो मुस्कुराते और हंसते भी मिल जाए, अच्छा आदमी हमें हंसते भी न मिलेगा, वह इतना डर गया है कि हंसी में पाप मालूम पड़ता है। वह इतना भयभीत हो गया है कि जीवन को कहीं से भी अभिव्यक्ति देने में डर लगता है कि कहीं कोई भूल न हो जाए, कहीं कोई गलती न हो जाए।

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                भय,भ्रम और संदेह के कारण जब मनुष्य का चरित्र पूरी तरह प्रभावित हो जाता है, तो वैसे ही लोग कुंठा ग्रस्त हो जाते हैं । कुंठा ग्रस्त व्यक्ति अपनी सारी क्रियाशीलता, कर्मठता और संकल्प तीनों को गंवा बैठता है।

हमेशा ध्यान दीजिए,इसलिए तो भयमुक्त हो जीवन अपना bhy se mukt kese paayen disperssion free life tanav se mukti kese payen

श्री मति माधुरी बाजपेयी

मण्डला,मध्यप्रदेश,भारत

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2 टिप्पणियाँ

  1. जागृत जीवन के समस्त क्षेत्रों को छूने का आपका प्रयास सराहनीय है ।आ ज ।दिशा और दशा दोनों को तंदुरुस्त करने की आवश्यकता है। निश्चित आपके लेख में व्यापकता है अनुकूलता है सामाजिकता है और सरसता से ओतप्रोत हैं।

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